शनिवार, 8 जनवरी 2011

कल्पना की कान्त कोकिल

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना नित रैन बासर !

जब सुभावों से हृदय हो शून्य रो-रो प्राण खोये,
नयन निर्झरिणी उमड़ कर स्मृति पट को नित भिगोये,
तब सुनाना सुखद, मंगल मधुर आश्वासन दिलाना,
दूर कर नैराश्य तम को, आश का दीपक जलाना,
मुखर कोकिल कुहुकना निज प्राण में नव ओज भर कर !

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना निज रैन बासर !

जब भयानक अन्न संकट घेर ले चहुँ ओर आकर,
अस्थि पंजर शेष मनुजाकृति क्षुधा से तिलमिला कर,
एक दाना देख कर झपटें, तड़प कर प्राण खोयें,
देख बलि निज बांधवों की अश्रुजल से उर भिगोयें,
फूँक देना प्राण उनमें सुखद स्वप्नों को दिखा कर !

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना नित रैन बासर !

जब किसी अपराध में बंदी पड़ा हो कोई भी जन,
याद कर निज स्नेहियों की दुखी उसके प्राण औ मन,
विवशता के पाश को असमर्थ हो वह काटने में,
हो अकेला, कोई भी साथी न हो दुःख बाँटने में,
तब सुला देना उसे दे थपकियाँ लोरी सुना कर !

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना नित रैन बासर !

किरण

8 टिप्‍पणियां:

  1. "जब किसी अपराध मैं बंदी पड़ा हो कोइ जन--------तब सुला देना उसे दे थपकियाँ लोरी सूना कर "
    बहुत सुन्दर भाव |
    आशा

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  2. साधना जी सुन्दर और सार्थक सन्देश देती रचना बहुत अच्छी लगी। बधाई आपको।

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  3. दूर कर नैराश्य तम को, आश का दीपक जलाना,
    मुखर कोकिल कुहुकना निज प्राण में नव ओज भर कर !

    बहुत ही सुन्दर आग्रह है, कल्पना की कांत कोकिल से
    बहुत ही सुमधुर ....मीठी सी रचना लगी यह

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  4. आदरणीय साधना जी
    नमस्कार !
    सुन्दर और सार्थक सन्देश देती रचना बहुत अच्छी लगी।

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  5. sach me kalpnaaye bhi kayi baar kitne bade chamatkaar kar deti hain.

    sunder ek seekh deti rachna.

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  6. अच्छी लगी यह रचना ....
    आपका धन्यवाद !

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