बुधवार, 10 नवंबर 2010

मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ ?

मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ ?

रजनी की काली अलकों में,
तारों की झिलमिल ज्योती में,
तुम छिपे हुए हो जीवन धन
इस ओस के सुन्दर मोती में !

निशिपति की मृदु मुस्काहट में
आकर के तुम मुस्का जाते,
घिर करके श्याम बादलों में
तुम उनको खेल खिला जाते !

सुन्दर गुलाब की लाली में
अधरों की लाली छिपती है,
कोमल कलिका के रंगों में
हाथों की लाली छिपती है !

सूरज की ज्योती में प्रियतम
ज्योतिर्मय रूप तुम्हारा है,
अरुणोदय की अँगड़ाई में
उज्ज्वलतम रूप तुम्हारा है !

सरिता की चंचल लहरों में
वह श्याम रूप बहता पाया,
सागर के शांत कलेवर में
तव शांत रूप ठहरा पाया !

घर में, मग में, वन-उपवन में,
पृथ्वी, आकाश में, यहाँ-वहाँ,
सर्वत्र व्याप्त हो श्याम तुम्हीं
मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ !

किरण

14 टिप्‍पणियां:

  1. कण-कण मे व्याप्त उस स्रष्टा को समर्पित यह रचना बहुत अच्छी लगी। कवयित्री को नमन।

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  2. बहुत खूबसूरत रचना ..ईश्वर को ढूँढना है तो निज को खोजो ...

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  3. ईश्वरत्व को समर्पित ये कविता बेहतरीन है।

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  4. sarvyapi ghat ghat vasi ko kya dhoondhna...yah to anubhuti ki baat hai!
    bahut sundar!!!

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  5. जो है सर्वत्र उसे ढूँढने जाऊं कहाँ ...
    बहुत सुन्दर !

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  6. बहुत ही सुन्‍दर एवं भावमय प्रस्‍तुति ।

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  7. सुन्दर रचना!
    इस पोस्ट की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी है!
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/11/335.html

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  8. सुंदर भावमय रचना...बहुत समय बाद निराशाओं के झुरमुट से निकल एक सहज प्रेम मई कविता पढ़ने को मिली. शुक्रिया.

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  9. वाह ! बहुत ही मनोहारी भक्ति रस से परिपूर्ण इस रचना को पढ़ मन बहुत आनन्दित हुआ ...आभार

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  10. भक्ति रंग मे डूबी हुयी सुन्दर भावमय कविता। बधाई।

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