रविवार, 24 अक्तूबर 2010

यह कोई भगवान नहीं है

निर्ममता की सतत सृष्टि से सूखे भावुकता के अंकुर,
मोह, राग,करुणा कोमलता साजों के उखड़े सारे स्वर,
साथी खोज रहे हो किस आशा से सुदृढ़ पतवारें,
भँवर-भँवर पर नाच रही है मानवता की नौका जर्जर !

तट हैं दूर, किनारे पंकिल, मंजिल की पहचान नहीं है,
पथ काँटों से भरे हुए हैं, सही दिशा का ज्ञान नहीं है,
कहाँ भटकते भोले राही, कौन तुम्हारा पथ दर्शक है,
यह तो पत्थर की प्रतिमा है, यह कोई भगवान नहीं है !

किरण

11 टिप्‍पणियां:

  1. कभी कभी ऐसा आक्रोश भी उपजता है.... ना जाने क्यों ...?

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  2. हम तो आपकी भावनाओं को शत-शत नमन करते हैं.

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  3. तट हैं दूर, किनारे पंकिल, मंजिल की पहचान नहीं है,
    पथ काँटों से भरे हुए हैं, सही दिशा का ज्ञान नहीं है,
    बहुत सुन्दर कविता। बधाई आपको।

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  4. सुन्दर रचना!
    --
    मंगलवार के साप्ताहिक काव्य मंच पर इसकी चर्चा लगा दी है!
    http://charchamanch.blogspot.com/

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  5. इस ब्लॉग पर आकर मन आह्लादित हो जाता है...इतने सुन्दर शब्दों में गुंथी कविता और भाव भी अर्थपूर्ण..
    पठनीय रचना

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  6. यह तो पत्थर की प्रतिमा है,
    यह कोई भगवान नहीं है !

    -क्या बात है..

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  7. सच कहा आप ने इसे तो पत्थर को तराश कर बनाया गया हे , यह कोई भगवान नही हे, इस सुंदर रचना के लिये आप का धन्यवाद

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  8. ek layabaddha sundar shabdo se saji rachna ne man moh liya........bahut sundar

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  9. भँवर-भँवर पर नाच रही है मानवता की नौका जर्जर !

    बाहर सुन्दर रचना ....

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