बुधवार, 29 सितंबर 2010

* हार बैठी आज मैं सखी *

पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !

प्राण वीणा में निरंतर
करूण स्वर मैं साधती थी ,
उड़ सकूँगी क्यों न मैं भी
सोच साहस बाँधती थी ,
व्यर्थ थी वह साधना औ व्यर्थ यह साहस रहा सखी !
पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !

डगमगाती तरिणी ने
मँझधार भी न देख पाया ,
क्रूर झंझावात ने
पतवार बन उसको बढ़ाया,
खो गयीं सारी दिशायें, तिमिर में ही बढ़ रही सखी !
पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !

उषा हँसती, किरण जगती
ज्योति से जग जगमगाता ,
क्षितिज तट का शून्य अंतर
पर न कोई मिटा पाता ,
है क्षणिक द्युति, शून्य शाश्वत, जान पाई आज मैं सखी !
पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !

किरण

19 टिप्‍पणियां:

  1. निराशा के पलों मे मन की व्यथा को शब्द दे कर मन को ढाढ्स देने का अच्छा प्रयास है कागज़ ही तो सुनते हैं मन की व्यथा।
    डगमगाती तरिणी ने
    मँझधार भी न देख पाया ,
    क्रूर झंझावात ने
    पतवार बन उसको बढ़ाया,
    खो गयीं सारी दिशायें, तिमिर में ही बढ़ रही सखी !
    पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !
    बहुत अच्छी लगी आपकी रचना। शुभकामनायें

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  2. bahut achhi rachna lagi mujhe ....
    yun hi likhte rahein...

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  3. डगमगाती तरिणी ने
    मँझधार भी न देख पाया ,
    क्रूर झंझावात ने
    पतवार बन उसको बढ़ाया,
    खो गयीं सारी दिशायें, तिमिर में ही बढ़ रही सखी !
    पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !
    nihshabd hun...

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  4. डगमगाती तरिणी ने
    मँझधार भी न देख पाया ,
    क्रूर झंझावात ने
    पतवार बन उसको बढ़ाया,
    खो गयीं सारी दिशायें, तिमिर में ही बढ़ रही सखी ...

    इस धारा प्रवाह ... शब्द संयोजन ने स्तब्ध कर दिया .... बहुत ही सुंदर रचना ...

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  5. आज की यह रचना ऐसा लग रहा है कि मेरे भावों को खूबसूरत शब्द मिल गए हैं ...जो भाव यहाँ लिखे गए हैं वही मेरे मन में घटित हो रहे हैं ...इसी लिए यह रचना मुझसे एकात्म होती सी जान पड़ रही है ..

    है क्षणिक द्युति, शून्य शाश्वत, जान पाई आज मैं सखी !
    पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !

    बस यही महसूस हो रहा है ..

    आभार इतनी सुन्दर रचना पढवाने के लिए

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  6. डगमगाती तरिणी ने
    मँझधार भी न देख पाया ,
    क्रूर झंझावात ने
    पतवार बन उसको बढ़ाया,
    खो गयीं सारी दिशायें, तिमिर में ही बढ़ रही सखी !
    पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !
    ---

    बहुत सुन्दर!

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  7. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने जो प्रशंग्सनीय है! बधाई!

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  8. मन की कोमल भावनाओं को सुंदर शब्दों में प्रस्फुटित करती मनोहारी रचना...बहुत सुंदर।

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  9. शब्द संयोजन ने स्तब्ध कर दिया .... बहुत ही सुंदर रचना

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  10. आप की रचना 01 अक्टूबर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
    http://charchamanch.blogspot.com


    आभार

    अनामिका

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  11. डगमगाती तरिणी ने
    मँझधार भी न देख पाया ,
    क्रूर झंझावात ने
    पतवार बन उसको बढ़ाया,
    मानवीकरण का यह अन्दाज और बिम्ब संयोजन अद्भुत

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  12. Seems as if u read my heart n wrote it after dippin ur pen into the ink of my pain... n dat too very beautifully...

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