मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

मुझे मिले वे चरण

प्राण तरसते रहे निरंतर, मिला किसी का प्यार नहीं,
मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं !

मंजिल दूर, डगर अनजानी, जीवन पथिक थका हारा,
एकाकी सर्वस्व लुटा कर फिरता है मारा-मारा,
निज अभीष्ट मंदिर का जिसने पाया अब तक द्वार नहीं,
मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं !

अनदेखे सपनों में खोई आशा की दुलहिन भोली,
अनब्याही ही रही, उठी है कब उसके घर से डोली,
छल-छल छलके नयन, मिला पीड़ा को कुछ आधार नहीं,
मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं !

विश्वासों के दीपक कब तक बिना स्नेह जलते जाएँ,
बेड़ी पड़ी पगों में कैसे फिर बंदी चलते जाएँ,
अगम सिंधु, पंकिल तट, टूटी नौका है, पतवार नहीं,
मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं !

निठुर देवता छल कर मेरा जीवन क्या तुमने पाया,
मेरा निश्च्छल ह्रदय सुमन क्यों निष्ठुर बन कर ठुकराया,
बाल विहग भावों के निर्बल कर सकते प्रतिकार नहीं,
मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं !

किरण

9 टिप्‍पणियां:

  1. भावों से पूर्ण सुन्दर रचना ......

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  2. Oh! Kya gazab likhti hain aap..kavita jaise aapki dhamniyon me rach bas gayi hai..sahajtase bah nikalti hai..

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  3. Really it is much heart touching .
    ना कोइ गम ,न कोई शिकवा शिकायत किसी से ,
    गिल्ला तो तब करें जब निभाया हो किसी ने किसी से |
    उक्त अभिब्यक्ति कवियत्री के ह्रदय को स्पर्श कर गई |
    आशा

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  4. अत्यंत गहन और दिल को छू लेने वाली रचना ।

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  5. dil ko chu gai aapki rachna!
    bhav se paripurna...kafi accha laga padhkar.
    regards-
    #ROHIT

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  6. .....मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं ! .....

    bahut sundar !

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